Saturday, October 25, 2014

शालिमा तबस्सुम "शैल " महाभारत के अवतार (क्रमशः 2)







 महाभारत के अवतार   (क्रमशः 2)

अवतार का प्रयोजन -


अवतार का मुख्य प्रयोजन धर्म की स्थापना तथा अधर्म का विनाश है । यदा यदा हि धर्मस्य........महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत गीता का अत्यन्त स्पष्ट, प्रामाणिक एवं सारगर्भित अवतार संबंधी श्लोक है । इसके अन्तर्गत स्वयं  कृष्ण अर्जुन से अपने अवतार ग्रहण करने का प्रयोजन बताते हैं ।
पुरातन काल से ही मानव सृष्टि के मूल में एक अदृश्य  शक्ति का अनुभव एवं दर्शन करता रहा है । उसे ही सृष्टि रचना एवं संहार प्रक्रिया का मूलाधार माना जाता रहा है । कालान्तर में इसी  शक्ति को ईश्वर कहा जाने लगा । मनुष्य दुख, पीड़ा एवं अत्याचार के समय में उद्धारक रूप ईश्वर को स्मरण करता है । अतःदुष्टों के संहारक और सज्जनों के रक्षक कहे जाने वाले भगवान के अवतार के पीछे मूलभूत भावना व्यक्ति के आत्म संरक्षण की है । भगवान द्वारा अवतार ग्रहण करने का कार्यकाल किसी न किसी प्रयोजन से सम्बद्ध रहता है । ऋग्वेद में विष्णु  को जगत् का रक्षक कहा गया है । रामायण में विष्णु के अवतार का मुख्य कारण देव-शत्रु का वध करना है । राम को सनातन नारायण माना गया है । वह स्वयं कहते है- 
    नष्टधर्मव्यवस्थानां काले काले प्रजाकरः ।
    उत्पद्धते दस्युवधे शरणागतवत्सलः । ।    ( रामायण ६.८.२७ )
महाभारत में अनेक स्थलों पर अवतार के प्रयोजन बताए गये हैं । कृष्ण स्वयं अपने पृथ्वी पर आगमन का कारण बताते हुए कहते हैं कि जब जब श्रुतियाँ लुप्त होती हैं तब तब वह ही अवतार लेकर उन्हें प्रकाश में लाते हैं । अवतार रूप में वही दानवों और दैत्यों का संहार करते हैं । पापियों के विनाश एवं दण्ड देने तथा सत्पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए नाना रूपों को धारण करते हैं । अर्जुन से कृष्ण कहते हैं कि मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, मैं उन सबको जानता हूँ किन्तु तुम नहीं- 
                   बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।     
                       तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं परंतप ।
 हरिवंश पुराण में भी अवतार का प्रयोजन किंचित परिवर्तन के साथ धर्म स्थापना के साथ दुष्टों का दमन ही है- जब जब धर्म का ह्रास होता है तब तब प्रभु धर्म को दृढ़ रूप से स्थापित करने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं -
          यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
          धर्मसंस्थापनार्थाय तदा संभवति प्रभुः । ।( हरिवंश १.४१.१७ )
भागवत पुराण के अनुसार अव्यय, अप्रमेय निर्गुण तथा सगुण भगवान के अवतार का प्रयोजन है कि जीव उनके आश्रय से मोक्ष प्राप्त करें । ज्ञान पुंज का विसरण करना ही अवतार का मुख्य प्रयोजन है, वह ही सब गुरुओं का गुरु है तथा सब ज्ञान का आधार है । कपिल रूपी अवतार के संबंध में स्वयं भगवान कहते हैं कि इस लोक में इनका जन्म लिंग शरीर से मुक्त होने की इच्छा वाले मुनियों के लिए आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्वों के विवेचन के लिए हुआ है,मोक्षपद प्राप्ति हेतु उनका भजन किया जाता है । अतः असंख्य अवतारी रूप हैं और उन रूपों का प्रमुख प्रयोजन समय समयपर  धर्म की स्थापना, साधुजनों की रक्षा, मनुष्यों का कल्याण एवं आसुरी शक्ति का विनाश है |
वैदिक साहित्य में अवतार-
 मुख्य रूप से तो अवतार पाँच ही है परन्तु पुराणों तक आते आते असंख्य अवतारों की परंपरा प्रारंभ हो गयी । वैदिक परंपरानुसार वामन, वराह, मत्स्य, कूर्म  एवं नृसिंह अवतार हैं ।  
रामायण में अवतार- रामायण के नायक राम प्रमुख अवतार माने जाते हैं परन्तु अन्य अवतारों यथा वामन, वराह, कूर्म तथा परशुराम की कथाएँ भी रामायण में उपलब्ध होती हैं । वराह अवतार को स्वयंभू ब्रह्मा कहकर संबोधित किया गया है । कूर्म अवतार धारण कर भगवान विष्णु देवताओं एवं दैत्यों की इच्छा पूर्ण करते हैं । 

लौकिक साहित्य में अवतार
लौकिक साहित्य में परमात्मा के सगुण रूप की सर्वत्र स्तुति प्राप्त होती है । सगुण होने के कारण भगवान् विभिन्न रूपों को धारण करते हैं, जिस कारण भिन्न-भिन्न संप्रदाय के व्यक्ति भगवान् के विभिन्न रूपों की उपासना करते हैं । अतः भगवान् की विभिन्न रूपों के माध्यम से स्तुति भी स्वाभाविक है । 
क्षेमेन्द्र ने दशावतारचरित नामक काव्य के एक एक अध्याय में प्रत्येक अवतार का विस्तृत वर्णन किया है- मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम,राम, कृष्ण, बुद्ध और कर्की । 
जयदेव ने गीत गोविन्द के प्रथम सर्ग में श्री कृष्ण के दशावतारों का अत्यन्त रमणीय वर्णन किया है-   
       वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते,
       दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षत्रं कुर्वते ।
       पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते,
    म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।


                                                                        क्रमशः  

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