Thursday, November 20, 2014

शालिमा तबस्सुम 'शैल" : महाभारत के अवतार ( क्रमशः 3)

महाभारत के अवतार-

क्रमशः 3
  
अवतारों के भेद
                 अवतारों के विषय में मान्यता है कि भगवान कभी कार्यवश अपने रूप को नवीन रूप में परिवर्तित करके, कभी किसी प्रयोजनवश नया जन्म लेकर विभिन्न रूपों में आते हैं और कभी- कभी अचानक ही अपने रूप को परिवर्तन किए आविर्भूत होते हैं । इसी कारण अवतारों को विभिन्न नाम दिए गए हैं । गर्ग संहिता के अनुसार-

            अंशोsशांशस्तथावेशः कला पूर्णः प्रकथ्यते ।
            व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् । ।

भगवान् के कला, पूर्ण, आवेश, अंश और अंशांश अवतार हैं । सर्वप्रथम ईश्वर का पूर्णावतार आता है जिसके अन्तर्गत अवतार रूप में ईश्वर सर्वशक्तिमान  होता है । पूर्णावतार के अन्तर्गत कलावतार का आविर्भाव होता है । इसके पश्चात्  अंशावतार आता है जिसमें भगवान् की पूर्णावतार से कम शक्ति का विकास होता है । अंशावतार के साथ ही भगवान् अंशांशावतार रूप में अवतीर्ण होते हैं । तदनन्तर आवेशावतार आता है इसमें भगवान् की शक्ति का आविर्भाव कुछ समय के लिए होता है । भगवान् के कालावतार के अन्तर्गत मन्वन्तर  एवं युगावतार आते हैं । सम्पूर्ण  सृष्टि- प्रक्रिया परमात्मा की दैवीय लीला है । परमपुरुष कभी अंश रूप में कभी कला रूप में अवतार लेते हैं । अपनी योगमाया से संसार में स्वच्छन्द विचरण करते हुए लीला करते हैं । भागवत पुराण में इस विचरण को ही भगवान् का लीलावतार कहा गया है ।
पूर्णावतार
       समस्त कलाओं से संपन्न अवतार पूर्णावतार कहलाता है । प्रश्नोपनिषद् में सोलह कलाओं के विषय में हैं कि प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति-अग्नि, जल, पृिथवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक एवं नाम ये सोलह कलाएँ हैं । इन सोलह कलाओं को प्राप्त कर जीव षोडशकल हो जाता है । ईश्वर द्वारा प्राण उत्पन्न हुआ, प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति,      जल, पृथिवी, इन्द्रिय,मन एवं अन्न उत्पन्न हुए । अन्न से वीर्य, तप,मन्त्र, कर्म     
   
  तथा लोक तदनन्तर लोक से नाम की उत्पत्ति हुई । इनकी उत्पत्ति का निमित्त कारण एवं उत्पत्ति के पश्चात् इनका आधार होने के कारण ईश्वर षोडश कल कहे जाते हैं । सोलह कलाएँ उस पुरुष में उसी प्रकार स्थित रहती हैं जिस प्रकार पहिये की धुरी में अरे जुड़े रहते हैं -

अरा इवरघनाभौ कला यस्मिन्प्रतििष्ठताः । 
तो वेद्यं पुरुष वेद यथा मा वो मृत्यु परिव्यथा ।   

भागवतपुराण के अनुसार सोलह कलाओं अर्थात दस इन्द्रियों, पाँच भूत और मन से युक्त अवतार पूर्णावतार कहलाता है । पूर्णावतार होने का कारण यह है कि जब तक ईश्वरीय नियम में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती, तब तक अवतार रूप में ईश्वर की अलौकिक शक्ति को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । जब कुछ अधर्म युक्त कार्य होने लगते हैं तब आठ कलाओं वाली भगवान की विभूतियों द्वारा उसे व्यवस्थित किया जाता है परन्तु जब उस शक्ति से काम नहीं चलता, धर्म की धारा अव्यविस्थत हो जाती है, उस समय उस अधर्म को नियंत्रित करने के लिए अंश या पूर्ण रूप से ईश्वर का अवतार होता है ।

  
 ईश्वर की शक्तियाँ अनंत हैं उसे जिस समय जितनी शक्ति की आवश्यकता होती है वहाँ उतनी शक्तियों को प्रकट किया जाता है । सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान कृष्ण पूर्णावतारी हैं । दैत्यों से पीड़ित संसार की रक्षा के लिए युग-युग में कृष्ण ही पूर्णावतार लेते हैं और दुष्टों का दमन करते हैं । 

अंशावतार-
              अवतारों में अंशावतार का महत्वपूर्ण स्थान है । अंशावतार एक देश, एक काल, एक परििस्थति तथा कभी कभी एक व्यक्ति के हित के लिए कार्य करता है ।  नौ से पन्द्रह तक की कलाओं वाला अवतार अंशावतार कहलाता है । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में अंशावतार के रूप में ईश्वर के अंश के दर्शन होत हैं । ईश्वर के अंश के साथ-साथ देवताओं के सामूहिक अंशावतार के दर्शन भी रामायण एवं महाभारत में होते हैं । रामायण में ब्रह्मा की प्रेरणा से देवता अपने 
अंश से वानरयूथपतियों की उत्पत्ति करते हैं । विष्णु अपने अंश स्वरूप राम के 
रूप में राजा दशरथ के अवतीर्ण होते हैं । जिस अवतार का उद्देश्य पापी रावण 
का विनाश था । अंश अवतार के साथ ही विष्णु अंशांश रूप में भी अवतीर्ण होते  
  हैं । दशरथ के भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न तीनों पुत्र अंशांशावतार की श्रेणी में आते   हैं । भागवत पुराण के अनुसार ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति मनुपुत्र और जितनी भी महान शक्तियाँ हैं, वे सब भगवान के अंश ही हैं । 
आवेश अवतार- गर्ग संहिता के अनुसार जिसके अन्तर में प्रविष्ट होकर विष्णु कार्य करते हैं वे आवेशावतार कहलाते हैं ।  
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः । 
तानाSSवेशावतारांश्च विधि राजन् महामते । 
इस दृष्टि से परशुराम आवेश अवतार कहलाते हैं । भगवान का कुछ समय के लिए किसी व्यक्ति में आविष्ट होना ही आवेश है । अपने इस रूप में भगवान दिव्य कर्म करते हैं । रामायण में परशुराम के विषय में वर्णन है कि राम और परशुराम अवतार एक ही समय एक साथ होते हैं । सीता स्वयंवर के समय परशुराम राम की परीक्षा के निमित्त राम से धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहते हैं । राम 
प्रत्यंचा चढ़ा देते हैं जिससे परशुराम की दिव्य शक्ति निकल कर राम में चली जाती है । परशुराम केवल मुनि ही रह जाते हैं । अतः कुछ समय के लिए भगवान की शक्ति का आविर्भाव होने के कारण परशुराम आवेश अवतार कहलाते हैं ।  गीता में कृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं- मैं पृथिवी में प्रवेश कर समस्त भूतों के तेज़ को धारण करता हूँ । अग्नि होकर प्राणियों के देहों में रहता हूँ । मैं ही सबके हृदय में अधिष्ठित हूँ । क्षर और अक्षर से भिन्न अव्यय ईश्वर में त्रैलोक्य में प्रविष्ठ होकर त्रिलोकी का पोषण करता हूँ । 
                                                                                  क्रमशः

Saturday, October 25, 2014

शालिमा तबस्सुम "शैल " महाभारत के अवतार (क्रमशः 2)







 महाभारत के अवतार   (क्रमशः 2)

अवतार का प्रयोजन -


अवतार का मुख्य प्रयोजन धर्म की स्थापना तथा अधर्म का विनाश है । यदा यदा हि धर्मस्य........महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत गीता का अत्यन्त स्पष्ट, प्रामाणिक एवं सारगर्भित अवतार संबंधी श्लोक है । इसके अन्तर्गत स्वयं  कृष्ण अर्जुन से अपने अवतार ग्रहण करने का प्रयोजन बताते हैं ।
पुरातन काल से ही मानव सृष्टि के मूल में एक अदृश्य  शक्ति का अनुभव एवं दर्शन करता रहा है । उसे ही सृष्टि रचना एवं संहार प्रक्रिया का मूलाधार माना जाता रहा है । कालान्तर में इसी  शक्ति को ईश्वर कहा जाने लगा । मनुष्य दुख, पीड़ा एवं अत्याचार के समय में उद्धारक रूप ईश्वर को स्मरण करता है । अतःदुष्टों के संहारक और सज्जनों के रक्षक कहे जाने वाले भगवान के अवतार के पीछे मूलभूत भावना व्यक्ति के आत्म संरक्षण की है । भगवान द्वारा अवतार ग्रहण करने का कार्यकाल किसी न किसी प्रयोजन से सम्बद्ध रहता है । ऋग्वेद में विष्णु  को जगत् का रक्षक कहा गया है । रामायण में विष्णु के अवतार का मुख्य कारण देव-शत्रु का वध करना है । राम को सनातन नारायण माना गया है । वह स्वयं कहते है- 
    नष्टधर्मव्यवस्थानां काले काले प्रजाकरः ।
    उत्पद्धते दस्युवधे शरणागतवत्सलः । ।    ( रामायण ६.८.२७ )
महाभारत में अनेक स्थलों पर अवतार के प्रयोजन बताए गये हैं । कृष्ण स्वयं अपने पृथ्वी पर आगमन का कारण बताते हुए कहते हैं कि जब जब श्रुतियाँ लुप्त होती हैं तब तब वह ही अवतार लेकर उन्हें प्रकाश में लाते हैं । अवतार रूप में वही दानवों और दैत्यों का संहार करते हैं । पापियों के विनाश एवं दण्ड देने तथा सत्पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए नाना रूपों को धारण करते हैं । अर्जुन से कृष्ण कहते हैं कि मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, मैं उन सबको जानता हूँ किन्तु तुम नहीं- 
                   बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।     
                       तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं परंतप ।
 हरिवंश पुराण में भी अवतार का प्रयोजन किंचित परिवर्तन के साथ धर्म स्थापना के साथ दुष्टों का दमन ही है- जब जब धर्म का ह्रास होता है तब तब प्रभु धर्म को दृढ़ रूप से स्थापित करने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं -
          यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
          धर्मसंस्थापनार्थाय तदा संभवति प्रभुः । ।( हरिवंश १.४१.१७ )
भागवत पुराण के अनुसार अव्यय, अप्रमेय निर्गुण तथा सगुण भगवान के अवतार का प्रयोजन है कि जीव उनके आश्रय से मोक्ष प्राप्त करें । ज्ञान पुंज का विसरण करना ही अवतार का मुख्य प्रयोजन है, वह ही सब गुरुओं का गुरु है तथा सब ज्ञान का आधार है । कपिल रूपी अवतार के संबंध में स्वयं भगवान कहते हैं कि इस लोक में इनका जन्म लिंग शरीर से मुक्त होने की इच्छा वाले मुनियों के लिए आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्वों के विवेचन के लिए हुआ है,मोक्षपद प्राप्ति हेतु उनका भजन किया जाता है । अतः असंख्य अवतारी रूप हैं और उन रूपों का प्रमुख प्रयोजन समय समयपर  धर्म की स्थापना, साधुजनों की रक्षा, मनुष्यों का कल्याण एवं आसुरी शक्ति का विनाश है |
वैदिक साहित्य में अवतार-
 मुख्य रूप से तो अवतार पाँच ही है परन्तु पुराणों तक आते आते असंख्य अवतारों की परंपरा प्रारंभ हो गयी । वैदिक परंपरानुसार वामन, वराह, मत्स्य, कूर्म  एवं नृसिंह अवतार हैं ।  
रामायण में अवतार- रामायण के नायक राम प्रमुख अवतार माने जाते हैं परन्तु अन्य अवतारों यथा वामन, वराह, कूर्म तथा परशुराम की कथाएँ भी रामायण में उपलब्ध होती हैं । वराह अवतार को स्वयंभू ब्रह्मा कहकर संबोधित किया गया है । कूर्म अवतार धारण कर भगवान विष्णु देवताओं एवं दैत्यों की इच्छा पूर्ण करते हैं । 

लौकिक साहित्य में अवतार
लौकिक साहित्य में परमात्मा के सगुण रूप की सर्वत्र स्तुति प्राप्त होती है । सगुण होने के कारण भगवान् विभिन्न रूपों को धारण करते हैं, जिस कारण भिन्न-भिन्न संप्रदाय के व्यक्ति भगवान् के विभिन्न रूपों की उपासना करते हैं । अतः भगवान् की विभिन्न रूपों के माध्यम से स्तुति भी स्वाभाविक है । 
क्षेमेन्द्र ने दशावतारचरित नामक काव्य के एक एक अध्याय में प्रत्येक अवतार का विस्तृत वर्णन किया है- मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम,राम, कृष्ण, बुद्ध और कर्की । 
जयदेव ने गीत गोविन्द के प्रथम सर्ग में श्री कृष्ण के दशावतारों का अत्यन्त रमणीय वर्णन किया है-   
       वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते,
       दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षत्रं कुर्वते ।
       पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते,
    म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।


                                                                        क्रमशः